NOIDA NEWS: ऑटिज्म कोई बीमारी नहीं, बल्कि एक मानसिक स्थिति है। सही देखभाल, थेरेपी और सहयोग से ऑटिज्म ग्रसित व्यक्ति भी आत्मनिर्भर जीवन जी सकते हैं। यह बातें फेलिक्स हॉस्पिटल के न्यूरोलॉजिट सुमित शर्मा डॉक्टर ने विश्व ऑटिज्म जागरूकता दिवस पर मरीजों को बताई।
उन्होंने बताया कि हर साल 2 अप्रैल को विश्व ऑटिज्म जागरूकता दिवस मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 2007 में इस दिन को मनाने की घोषणा की थी। इसका उद्देश्य ऑटिज्म से प्रभावित लोगों के प्रति जागरूकता बढ़ाना और उन्हें समाज में समान अधिकार दिलाना है। ऑटिज्म जिसे ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर (एएसडी) भी कहा जाता है। एक न्यूरोडेवलपमेंटल स्थिति है। जो बचपन में शुरू होती है और पूरे जीवन भर बनी रहती है। यह कोई बीमारी नहीं बल्कि एक मानसिक स्थिति है। जिसमें व्यक्ति को सामाजिक संपर्क, संचार और व्यवहार में कठिनाई होती हैं। ऑटिज्म किसी भी बच्चे को हो सकता है, लेकिन यह अधिकतर 3 साल की उम्र तक पहचान में आ जाता है। परिवार में पहले से ऑटिज्म के मामले होने पर इसकी संभावना बढ़ जाती है। गर्भावस्था के दौरान किसी प्रकार की जटिलता या संक्रमण से मस्तिष्क का विकास प्रभावित हो सकता है। प्रदूषण, गर्भावस्था में पोषण की कमी, वायरल संक्रमण जैसे कारक ऑटिज्म को बढ़ा सकते हैं। मस्तिष्क में न्यूरोट्रांसमीटर का असामान्य स्तर भी इसकी वजह हो सकता है। ऑटिज्म के लक्षण हर व्यक्ति में अलग-अलग हो सकते हैं। आमतौर पर ये लक्षण बचपन से ही दिखाई देने लगते हैं। ऑटिज्म का कोई स्थायी इलाज नहीं है, लेकिन कुछ उपचार और थेरेपी के जरिए इसे नियंत्रित किया जा सकता है। व्यवहार थेरेपी का बच्चों को सामाजिक और संवाद कौशल सिखाने के लिए विशेष तकनीकों का उपयोग किया जाता है। स्पीच थेरेपी बोलने और संवाद कौशल विकसित करने में मदद करती है। ऑक्यूपेशनल थेरेपी रोजमर्रा के कामों को करने में सहायता करती है। विशेष शिक्षण पद्धति ऑटिज्म ग्रस्त बच्चों के लिए उपयोगी होती हैं। कुछ मामलों में चिंता, डिप्रेशन या अति-सक्रियता को कम करने के लिए दवाइयां दी जा सकती हैं।
ऑटिज्म के लक्षण:
- दूसरों से बातचीत करने या आंखों में आंखे डालकर बात करने में कठिनाई।
- भावनाओं को समझने और व्यक्त करने में परेशानी।
- बोलने में देरी या बिल्कुल न बोलना।
- अजीबोगरीब आवाज़ों या शब्दों का दोहराव।
- कोई एक ही काम बार-बार करना।
- किसी विशेष चीज़ में अत्यधिक रुचि लेना और उसी में खोए रहना।
- तेज़ रोशनी, आवाज़ या स्पर्श से परेशान होना।
- छोटी-छोटी चीज़ों में बदलाव से चिढ़ जाना या घबरा जाना।
रोकथाम के उपाय:
- संतुलित आहार लें, तनाव से बचें और नियमित चिकित्सीय परामर्श लें।
- गर्भावस्था और बचपन में आवश्यक टीके लगवाए।
- यदि बच्चा निर्धारित उम्र में बोलने या सामाजिक संपर्क में देरी कर रहा है, तो विशेषज्ञ से सलाह लें।
- बच्चे को एक सकारात्मक और स्वस्थ वातावरण में बड़ा करें।